because I write....

because I write....

Friday, October 26, 2012

Exclusive of mine : क्या क्या गँवाया , यहाँ आते आते


                    Concluding ......

आम की टहनियों में झूले लगाना ,
मिट्टी के मूरत , वो घिरनी बनाना
अंतहीन अंताक्षरी , गाने गाना
घंटी बजने पर ही स्कूल जाना |

गुरुजी की वो टेढ़ी लाठी
सरसों साग संग मक्‍के की रोटी
लंगड़ी कबड्डी , वो गुल्ली डंडा
कच्ची आम और मिर्ची का तीखा |

दोस्ती दुस्मनी , वो बेफ़िक्र रातें
क्या क्या गँवाया , यहाँ आते आते |

नये चेहरों में दोस्ती का फसाना
स्याही से खुद की मुच्चें बनाना
जेठ की दुपहर मे चौके-छक्के लगाना
घर आते नये नये उलाहना |

होली के 'भूत' ना पहचाने जाते
बुझते दीयों को , जलते जलाते
रज़ाईवाली सर्दी में बर्फ़े बनाते
नागराज-शेख़चिल्ली ना भूले जाते
लगते थे अच्छे , वो रिस्ते नाते |

गये दिन वो भी हँसते मुस्काते
क्या क्या गँवाया यहाँ आते आते

शुरू हुई फिर एक अलग ही कहानी
मर गये थे जब सब राजा रानी |
अँगरेज़ी गीटपिटाते वो नये चेहरे
नंबर की रेस , अनुशासन के पहरे
हिस्टरी की क्लास मे ज्योमिति का क्वेस्चन
खूबसूरत थीं वो बायो वाली मैडम  |

अल्फ़ा बीटा तो कभी पल्ले ना आते
थक गये , न्यूटन अंकल को रट्टा लगाते |

उब गये थे हम भी मार खाते खाते '
क्या क्या गँवाया , यहाँ आते आते  |

 इंजिनियरिंग के वो शुरुआती रैगिंग
फर्स्ट सेमेस्टर , जिंदगी के बुरे दिन |
ओर्कूट फ़ेसबुक की वो महामारी
निपटे इनसे भी बारी बारी |
'ग्रेड' और ' गर्लफ्रेंड' की स्वाभाविक लालच
मिले ना दोनो , अपनी फूटी किस्मत |

उड़न छू  हो गये दो साल , समझते समझाते |
क्या क्या गँवाया यहाँ आते आते |

फ़िल्मो का वो 'रिविजन' लगाना
मेस का वो 'सात्विक' खाना |
वो क्लब, वो फेस्ट, वो मुफ़्त का नेट
रास नहीं आती कोई क्लासमेट |

ख़त्म दिन चैटिंग के , भूले बर्थडे पार्टी
प्रॉजेक्ट, प्लेसमेंट और अंतिम दिन | 
हँसें या रोयें , कभी समझ नहीं पाते
क्या क्या गँवाया यहाँ आते आते |