Though I am neither a professional writer, nor willing to be. However, as this blog is true color of mine , I am placing one of my effort . I am not emphasizing you to recognize my lackluster poet though :) .
This poem is a sarcasm on what is going in our society. Hope you will like . If you find it yawning , please scroll forward :)
बड़े दिनों से हमने अपने दिल को रोका था .
माँगी ना हमने थी , आपसे बस धोखा था |
जिंदगी के हर लम्हे एक-एक करके चले गये .
अपने किए पर फिर भी - ये खुशी अनोखा था |
दिन आए और गये , पर कह ना सके ये बजूबनियाँ.
गुस्ताख़ी मेरी ही थी ये, जो बन गयी कहानियाँ |
चाहा तो खूब कहना, इंतज़ार-ए- अदद एक मौका था.
ख्याल तो करोड़ो थे, एक रब दा ही भरोशा था |
मिलें ना आप हमें तो, फिर भी कोई बात नहीं
फूल चमन के सभी , हो गुलदस्तें में ज़रूरी तो नहीं ?
क्या मिलेगा किसी को , फूल अगर यह सूखा था ?
अपने किए पर फिर भी - ये खुशी अनोखा था |
मैं जियूंगा फिर भी , चाहे आप आओ या नहीं
जिंदगी से पहले, है आता कोई चाहत कहीं ?
ढूँढ निकालूँगा राह अलग, सामने जब ये नौका था
जान देने का ख्याल भी, मैने कभी ना सोचा था.
अपने किए पर फिर भी - ये खुशी अनोखा था |
द्वारा: सुमित.

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