because I write....

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Wednesday, August 15, 2012

Letter to anonymous olympian

प्यारे दोस्त,
तुम वहाँ अपने तंन-मन से सर्वश्रेष्ट की अपेक्षा कर रहे थे | प्रयाश प्रशंसनीय था , पर कुछ तथ्य जिससे तुम अग्यात होगे - जो जेयैवनिक और पर्यावर्णी आधारों से निर्धारित होते हैं - तुम उन लोगों के समीप आने से चूक गये , जो ओलिंपिक पूर्व-निर्धारित मुस्कानो के साथ ओलिंपिक पदकों से सुसज्जीत हो रहे थे |
जब तुम दौड़ रहे थे, तुम्हे ये अंदेशा भी नहीं रहा होगा कि कितने जोड़े आँख तुम्हे स्टेडियम या दूरदर्शन के मध्यम से तुम्हे देख रहे थे | मैं समझता हूँ - वे बहुत नहीं थे, जिनमे मेरी आँखे भी शामिल थीं |

मैने तुम्हे रेस के बाद देखा , तुम्हारे हताश चेहरे खोज रहें थे - आख़िर कहाँ चूक गये ? लंबे अभ्यास , अनुशासन , और खानपान के पश्चात - अब वो समय था जब तुम खेलगाँव को अलविदा कह रहे थे, मायूसी साथ थी|
उसके बाद तो ना मैने तुम्हे पहचानने की कोशिश की , ना ही वो कार ड्राइवर , जो तुम्हे हवाई अड्डे तक पहुँचाया, और ना ही वो ऑफीसर जो तुम्हारे पासपोर्ट जाँच कर तुम्हे अलविदा कर रहे थे |
और तुम्हारे टूटे मन को - क्या हुआ, क्या होता अगर... मगर.. - और जाने ऐसे दर्जनों नकारात्मक भाव अकेली यात्रा में परेशान कर रहे थे | टूटे सपनो के दर्द तुम्हे सोने भी कहाँ दे रहे थे ?
ऐसा भी क्या किया बोल्ट और फेल्प्स ने, जो मैं ना कर सका? मैने भी तो उतना ही प्रयाश किया था , जितना शायद उनलोगों ने किया था | फिर ..... फिर , मैं क्यूँ?  तुम सोच रहे थे |



पर मेरे प्यारे अग्यात दोस्त- मैं कहूँगा - क्या हुआ जो तुम पदक के बिन घर आए - तुम तो स्वयं ही विजयी थे | तुम्हारे बिन और तुम्हारे तरह उन हज़ारों के बिन - ना कोई बोल्ट होता ना ही कोई फेल्प्स |
क्योंकि तुमने अपनी बेहतरीन कोशिश की , पर असफल हो गये - वो वे बन सके जो आज हैं | ज़रा सोचो, किसी प्रति-स्फर्धा में सिर्फ़ तीन लोग लड़ रहें हों - स्वर्ण, रजत, और कान्श्य के लिए | क्या माजरा होगा- कौन दर्शक ठहरेगा वहाँ?
तुम्हारे प्रयास - और असफलता - वास्तव में ये ही तो सफलता को परिभाषित करते हैं| 'जीत सबकुछ है' - ये सत्य नहीं है | ख़ासकर खेल में नहीं, और ओलिंपिक में तो कदापि नहीं| हाँ, मानव कर्म के कुछ पहलू में जीत की अहमियत इस लिए है क्यूंकी कुछ लोगों के जिंदगी के मायने इस बात पर ही आधारित होते हैं |

याद करता हूँ Louis Borges के कथन को -" हार की प्रतिष्ठा को कभी-कभी सुनहरी विजय भी नही छू पाती | मेरे दोस्त , तुम लड़े, और हारे - क्या यह वही प्रतिष्ठा नहीं है ?
तो फिर ओलिंपिक में सिर्फ़ बोल्ट और फ्लेप्स ही कैसे हैं? यह तुम जैसे हज़ारों प्रतिस्परद्धियों का है - जो लड़े, और फिर चुपचाप चल दिए | और फिर , तुम सम्मानित भी हुए हो- पदकों के सम्मान से कहीं ज़्यादा | क्या हुआ , किसी ने देखा या नही - पर तुमने अपना सर्वश्रेष्ट कोशिश की- ये आत्मसंतुष्टि क्या किसी पदक जी मुहताज है ? मुझे नहीं लगता |
मैं जानता हूँ , मैं इतने अच्छा भी नहीं लिख पाता कि वो इतिहास मे निशान छोड़ जाए | पर यह मुझे अपने भावों को रखने से नही रोक सकता, और तुम्हारे 'हार-जीत' वाले घावों को साफ करने से भी हरगिज़ नहीं | तुम्हारे बिना , कोई ओलिंपिक हो ही नहीं सकता - यह एक सहज सत्य है |
जब स्कूल में था, पढ़ा था-'हार की जीत' | तुम वही बाबा भारती हो, जिससे कोई भी उसका आत्मविश्वास का घोड़ा नहीं छीन सकता |
फिर मिलेंगे Rio de Jenario में दोस्त, जहाँ मुझे विश्वास है , दिन तुम्हारे होंगे - तुम्हारे हाथ पदकों से भरे होंगे| अगर ऐसा नहीं भी हो सका , तो भी तुम सपने देखना मत छोड़ना | तुम कह सकते हो -' मैं सपने देखता हूँ, पर ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ | ' तुम हमेशा और हमेशा हमारे लिए विजयी थे, हो और रहोगे |

- तुम्हारा प्रशंसक

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