because I write....

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Saturday, May 11, 2013

और मैने जीना सिख लिया है


  Though  I am  neither a professional writer, nor  willing to be. However, as this blog is true color of mine , I am placing one of my effort . I am not emphasizing you to recognize  my lackluster  poet though :) .
This poem is a sarcasm on what is going in our society. Hope you will like . If you find it yawning , please scroll forward :)

मने 'रामपुर' में भी 'सीता' को लूटते देखा है                  
सब्जीवाले उस्तरा को, गले उतारते देखा है |
रिश्तों के हर बंधन को, हमने छुकर महसूस किया है
और आधुनिका के पल्लू थामकर मैने जीना सिख लिया है |

रक्तरंजित मनहूसियत , मन में बदले की अभिलासा
पाठशाला जानेवाले कदम, मुड़चले अब मधुशाला |
होते थे दाग जिस कमीज़ पर अपनी माटी के, लहू के हैं निशाँ
मुहताज नहीं अब कलम कागज़ का, 'क़लम' होते हैं अब सर यहाँ |
बचपन की दूध को , ' हॉर्लिक्स ' की ताक़त से यूँ उलझते  देखा है |
तट्स्त नौका को रेत की दरिया  में पलटते देखा है | 

बदल रही  वस्त्रों की परिभाषा भी, ढँक नहीं पाते थे तन कभी ग़रीबों के
बदलती अंजुमन में रहीशजादे, थक गये हैं कपड़ों से नफ़रत कर के |
'बहनजी' अब ' मैडम' बन गयीं , और' सज्जन' बन गये' साजन'
'भाई साहब' तो चल ही बसें, रह गये अब ' जानेमन' |
'सेक्सी' होठों पे मुस्कान लाती, 'डार्लिंग' का कोई जबाब नहीं
यारों का तो बाजार ही है, खरीद लो चाहे कई |
खून के रिश्तें देखा पहले भी, अब रिश्तों का ' खून' होते देखा है |
तट्स्त नौका को रेत की दरिया  में पलटते देखा है | 

रिश्तों के हर बंधन को, हमने छुकर महसूस किया है
और आधुनिका के पल्लू थामकर मैने जीना सिख लिया है |



होता भी या नहीं , कौन जाने भगवान कहीं
व्यथीत होतें हैं सभी , कि आशियाना था उसका यहीं |
ईश्वर- अल्लाह के साक्ष् में, बना रहे 'कश्मीर' अनेक
कौतूहुल इस कदर हैं जैसे,  काट रहें 'बर्थडे' का केक |
'अन्न' रहीत गले से लोग, 'अन्ना-अन्ना' हैं पुकारते
वातानुकूलकित आशियानों वाले , चिलमन से भी नहीं झाँकते |
'सुवर्णा' कल की शगाई में , 'आज' को विलखते देखा है |
तट्स्त नौका को रेत की दरिया  में पलटते देखा है | 

मंदिरों में ' कॉकटेल' गटक रहे बाबा , करते अवलोकन 'जिस्म' चलचित्र में
'आई-फोन' से बता रहे हैं, क्या है अनुयायी के तकदीर में |          
'कंडिसनर' में तसरीफ रख , भक्तों की करते मोहपाश विरक्ति
खुद क्यूँ छोड़े काम-क्रोध को, जब दे रहे यही जीवन में मस्ती |
बेहया आधुनिकता बर्बाद कर रही, पाश्चात्य की सब करें बदनामी
'मैडम पूनम' तो अपने घर की है, फिर काहे की परेसानी |
'विद्यामंदिर' में बच्चों को, ' वत्सयान' का क्लास करते देखा है |
तट्स्त नौका को रेत की दरिया  में पलटते देखा है | 


रिश्तों के हर बंधन को, हमने छुकर महसूस किया है
और आधुनिका के पल्लू थामकर, मैने जीना सिख लिया है |

द्वारा: सुमित.

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